दूसरे के धन की वांछा

‘किसी के धन की वांछा मत करना’… इस सूत्र के इतने गलत अर्थ किए गए हैं कि कभी-कभी हैरानी होती है कि जिन लोगों ने उस तरह के अर्थ किए हैं…समस्त, अधिकतर व्याख्याकारों ने इसका अर्थ किया है कि दूसरे के धन की वांछा पाप है, दूसरे के धन की वांछा मत करना। लेकिन पागल मालूम पड़ते हैं। क्योंकि सूत्र कहता है कि धन किसी का है ही नहीं, परमात्मा का है। तो जब पहले ही यह सूत्र कहता है कि धन मेरा नहीं, तो तेरा कैसे हो सकता है?

नहीं, दूसरे के धन की वांछा इसलिए मत करना कि जो धन मेरा नहीं है वह तेरा भी नहीं है। वांछा का उपाय तभी है जब वह तेरा और मेरा हो सके। नहीं तो वांछा का उपाय नहीं है। लेकिन नीतिशास्त्रियों ने इसका जो उपयोग किया है, इस सूत्र का, वह यह किया है कि दूसरे के धन को सोचना भी पाप है! लेकिन जब मेरा ही धन नहीं है, तो दूसरे का कैसे हो सकता है?

इस सूत्र का अर्थ नीतिवादी नहीं निकाल पाएगा। यह सूत्र गहन है, गंभीर है। नीतिवादी तो इसी फिक्र में होता है: किसी के धन की चोरी मत कर लेना, किसी के धन को अपना मत मान लेना। लेकिन किसी का है, इस पर उसका जोर है। और ध्यान रहे, जो आदमी कहता है कि वह चीज आपकी है, वह आदमी, मेरी हैं चीजें, इस भावना से कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि ये दोनों संयुक्त भावनाएं हैं। जब तक मकान मेरा है, तभी तक मकान तेरा है। लेकिन जिस दिन मेरा नहीं रहा मकान, तो आपका कैसे रह जाएगा?

दूसरे के धन की वांछा मत करना, इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरे का धन है और उसकी वांछा करना पाप है। इसका यह अर्थ है कि धन किसी का भी नहीं है, इसलिए वांछा पाप है। धन किसी का भी नहीं है, परमात्मा का है। उसे मेरा भी मत जानना और तेरा भी मत जानना। उसे मेरा बनाकर मालिक भी मत बन जाना और दूसरे की मालकियत समझकर उसे छीनने की कोशिश में भी मत पड़ जाना। न उसे हम छीन पाएंगे, न हम उसे बचा पाएंगे। वह परमात्मा का है, जिससे छीनने का कोई उपाय नहीं है, जिससे बचाने का कोई उपाय नहीं है।

कैसा मजेदार है! एक जमीन के टुकड़े पर मैं तख्ती लगा देता हूं, मेरी है। मैं नहीं था तब भी जमीन का टुकड़ा था। जमीन का टुकड़ा बहुत हंसता होगा। क्योंकि मुझसे पहले भी बहुत लोग तख्ती लगा चुके उस टुकड़े पर कि मेरी है। और उस जमीन के टुकड़े ने उन सबको दफना दिया। उसी टुकड़े में दफना दिया। जहां आप बैठे हैं, एक-एक आदमी जहां बैठा है, वहां कम से कम दस-दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। जमीन पर एक इंच जगह नहीं है जहां दस आदमियों की कब” न बन चुकी हो। क्योंकि इतने आदमी हो चुके हैं कि एक-एक इंच जमीन पर दस-दस आदमी मर चुके हैं। वह जमीन को पूरी तरह पता है कि और भी दावेदार पहले तख्ती लगाकर जा चुके हैं। मगर नहीं, आदमी है कि फिर तख्ती लगाएगा। और यह भी नहीं देखता कि पुरानी तख्ती पर वार्निश करके अपना नाम लिख रहा है। वह यह भी नहीं देखता कि कल किसी को फिर वार्निश करने की तकलीफ उठानी पड़ जाएगी। यह नाहक मेहनत हो रही है। वह जमीन भी हंसती होगी।

नहीं, दूसरे के धन की वांछा मत करना, क्योंकि धन किसी का भी नहीं है। ध्यान रहे, मेरा जोर बहुत अलग है। मैं यह नहीं कहता हूं कि दूसरे के धन को अपना बना लेना पाप है। दूसरे के धन को दूसरा या अपना मानना पाप है। किसी का भी मानना पाप है। परमात्मा के अतिरिक्त मालकियत किसी की भी है तो पाप है।

अगर इसे समझेंगे, तो ईशावास्य का जो गहरा आयाम है, वह खयाल में आएगा। नहीं तो, नहीं तो इतना ही मतलब होता है, इन सूत्रों से यही मतलब निकल आता है कि हरेक अपनी-अपनी संपत्ति पर कब्जा रखे और दूसरे से सुरक्षा के लिए शिक्षा देता रहे चारों तरफ कि दूसरे की धन की वांछा मत करना।

(ईशावास्य उपनिषद पुस्तक से)
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