जानें, आखिर स्वामी विवेकानंद ने क्यों कहा बिना दुख के जीवन नहीं

संकलन: रेनू सैनी
एक महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद के पास बैठे हुए थे। यह देखकर काफी लोग वहां पर आ जुटे और उनसे सवाल-जवाब करने लगे। दार्शनिक स्वामी विवेकानंद से बोले, ‘इस जीवन में दुख बहुत है। मुझे नहीं लगता कि इस जीवन से कभी दुखों का अंत हो सकता है।’ यह सुनकर स्वामीजी बोले, ‘मेरे विचार में तो जीवन संघर्षों से जूझने का दूसरा नाम है। संघर्ष के बिना भला जीवन का आंनद कहां? यदि जीवन में दुख न हों तो जीवन का कोई लाभ नहीं। दर्द और पीड़ा के कारण ही तो व्यक्ति स्वस्थ देह का सुख और खुशी को जान पाता है।’

तभी एक श्रोता बोला, ‘स्वामीजी आपका तर्क उचित है। लेकिन कई बार ऐसा भी तो होता है कि व्यक्ति बेवजह ही दुख बुला लेता है। ऐसे में वह खुद के साथ-साथ दूसरों को भी हानि पहुंचाता है। आखिर व्यक्ति दुखों को बेवजह क्यों जन्म देता है?’ इस पर दार्शनिक बोले, ‘मेरे विचार में तो व्यक्ति दूसरों को दुख देने में स्वयं का सुख समझता है, इसलिए वह ऐसा करता है।’ इस पर स्वामीजी बोले, ‘असल में अज्ञानता के कारण व्यक्ति बेवजह दुखों को आमंत्रित करता है। यदि वह ज्ञान प्राप्त करके बात के सकारात्मक व नकारात्मक पहलू जान ले, तो दुखों को टाल सकता है।

स्वामीजी ने कहा, ‘इसलिए मैं तो कहूंगा कि मनुष्य को शिक्षित होने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा करके वह बेवजह के दुखों का अंत कर सकता है।’ स्वामीजी के इस जवाब से दार्शनिक के साथ ही वहां उपस्थित अन्य श्रोता भी सहमत हो गए। कई श्रोता स्वामीजी से बोले, ‘हम प्रयास करेंगे कि अपने अज्ञान को दूर कर उसमें ज्ञान का दीपक जलाएं और दूसरों को भी मार्ग दिखाएं।’ श्रोताओं की इस बात से स्वामीजी काफी प्रसन्न हुए और उन्हें आशीर्वाद देकर वहां से प्रस्थान कर गए।