संकलन: रेनू सैनी
लगभग 1500 वर्ष पहले बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया। वहां का राजा वू बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का था। उसने बहुत से मंदिर व मूर्तियां बनवाई हुई थीं। राजा वू बोधिधर्म से मिले। वह उनकी दिन-रात सेवा करते रहे, किंतु बोधिधर्म ने राजा वू की बिल्कुल प्रशंसा नहीं की। यह देखकर एक दिन राजा वू ने एकांत में बोधिधर्म से पूछा, ‘गुरुजी, मैंने इतने मंदिर बनवाए, ईश्वर की एक से एक मूर्तियां बनवाई, धर्म के लिए अथाह पैसा बहा दिया। मुझे यह सब करने से क्या मिलेगा?’
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राजा वू का प्रश्न सुनकर बोधिधर्म बोले, ‘कुछ भी नहीं।’ यह सुनकर राजा चकित होकर बोला, ‘ऐसा क्यों गुरुजी? मैं तो बहुत ही धार्मिक व्यक्ति हूं।’ बोधिधर्म बोले, ‘वह इसलिए, क्योंकि यह सब तुमने कुछ पाने के ध्येय से किया है, अपनी श्रद्धावश नहीं किया। श्रद्धावश धर्म पर पैसा बहाने की जगह यदि मानव सेवा पर पैसा बहाते तो शायद थोड़ा बहुत पुण्य अर्जित कर भी लेते, किंतु अब तो तुमने जीवन व्यर्थ गंवा दिया। भला ईश्वर को मंदिरों या मूर्तियों का क्या मोह? सच्चे मन से याद करो तो एक निर्धन व्यक्ति में भी नारायण के दर्शन हो सकते हैं। पीड़ा से तड़पते किसी प्राणी की सेवा करो तो उसमें भी नारायण का स्वरूप नजर आ सकता है।’
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बोधिधर्म ने समझाया, ‘ईश्वर तो कण-कण में है, उसे रूप देने की क्या आवश्यकता? यदि सच्चे अर्थों में उसे पाना चाहते तो मानव में बसे ईश्वर की सेवा करते। केवल लोगों के गुणगान करने से ही तुम अच्छे सिद्ध नहीं हो जाते। अपने मन से पूछो कि क्या तुम वास्तव में सर्वश्रेष्ठ राजा हो, जो अपनी प्रजा की प्रसन्नता के लिए व्याकुल रहता है?’ बोधिधर्म की बातें सुनकर राजा वू की आंखें खुल गईं और उसे अपने पर पश्चाताप हुआ। इसके बाद उसने मंदिरों और मूर्तियों को बनवाने की जगह मानव की सच्चे दिल से मदद करनी शुरू कर दी। उसने निस्वार्थ मानव सेवा को ही धर्म बना लिया।