जब सम्राट अशोक ने मंत्री को बताई सिर की कीमत

एक बार सम्राट अशोक अपने मंत्री के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक भिखारी दिखा। सम्राट रथ से नीचे उतरे और उस भिखारी के सामने सिर झुकाकर फिर आगे बढ़े। मंत्री को यह अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, ‘महाराज! आप इतने बड़े सम्राट हैं, आपको एक भिखारी के सामने शीश नवाना क्या शोभा देता है?’ सम्राट ने कहा, ‘इसका जवाब मैं कल दूंगा।’

अगले दिन सम्राट ने एक झोली में तीन सिर डलवा कर मंत्री को सौंपा और बोले इन्हें बेच आओ। झोले में एक सिर भैंसे का, एक बकरी का और एक मनुष्य का था। मंत्री पूरे दिन इधर-उधर घूमता रहा, परंतु कोई भी तीनों सिर खरीदने को तैयार नहीं हुआ। मंत्री ने आकर सम्राट को कहा, ‘महाराज कोई भी सिर खरीदने के लिए तैयार नहीं है।’ सम्राट ने आज्ञा दी- इन्हें मुफ्त में बांट दो। इस बार मंत्रीजी भैंसे और बकरी का सिर तो बांट आए किंतु मनुष्य का सिर कोई भी लेने को तैयार नहीं हुआ। लोगों का कहना था कि गाय और बकरी का सिर तो फिर भी काम आ जाएगा, आदमी का सिर लेकर क्या करेंगे?

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मंत्री जब थक-हार कर दरबार में लौटा और सम्राट को पूरी बात बताई तो उन्होंने मुस्कराकर कहा, ‘यही तो आपके कल के प्रश्न का उत्तर है। अब आप ही बताएं कि जिस सिर का कोई उपयोग नहीं, उसे सज्जन लोगों के सामने झुकाने में क्या अड़चन है? सम्राट होने का यश भी तो क्षणिक ही है। प्रेम व सम्मान तो हमारे जीवन में सदैव बना रहता है। सम्मान देने से सम्मान बढ़ता है, और अमीर-गरीब, ऊंच-नीच का भेद तो सम्मान की मूल भावना का ही लोप कर देता है। तात्पर्य यह है कि प्रतिष्ठा का अहंकार सिवाय असम्मान के कुछ नहीं देता, जबकि दूसरों को प्रेम व सम्मान देने से बदले में खुद भी सम्मान की प्राप्ति होती है।’ मंत्री को अपने सवाल का जवाब मिल चुका था।

संकलन : बेला गर्ग

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