गीता को यूं ही नहीं कहते माता समान, जानें जीवन में गीता का महत्व

डॉ. प्रणव पण्ड्या

भारतीय संस्कृति में गीता का स्थान सर्वोच्च है। भारतीय साधु-संन्यासियों के अन्तरतम में वीणा की झंकार की तरह गीता के श्लोक झंकृत होते हैं। कथा-प्रवचनों से लेकर घर-घर तक जीवन-सुधार परक उपदेश, नीति-नियमों का जो भी ज्ञान दिया जाता है, उसमें गीता का प्रकाश कहीं न कहीं अवश्य पड़ता है। धरती पर शायद ही ऐसा कोई स्थान हो, जो गीता के प्रभाव से मुक्त हो। भारत भूमि तो उसके स्पर्श से धन्य हो गई है।

गीता को, धर्म-अध्यात्म समझाने वाला अमोल काव्य कहा जा सकता है। सभी शास्त्रों का सार एक जगह कहीं यदि इकट्ठा मिलता हो, तो वह जगह है-गीता। गीता रूपी ज्ञान-गंगोत्री में स्नान कर अज्ञानी सद्ज्ञान को प्राप्त करता है। पापी पाप-ताप से मुक्त होकर संसार सागर को पार कर जाता है।

गीता को माँ भी कहा गया है। यह इसलिए कि जिस प्रकार माँ अपने बच्चों को प्यार-दुलार देती और सुधार करते हुए महानता के शिखर पर आरूढ़ होने का रास्ता दिखाती है, उसी तरह गीता भी अपना गान करने वाले भक्तों को सुशीतल शांति प्रदान करती है। यह मनुष्यों को सद्शिक्षा देती और नर से नारायण बनने के राह पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करती है। गीता का गान करते-करते मनुष्य उस भावलोक में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे अलौकिक ज्ञान-प्रकाश, अपरिमित आनन्द प्राप्त होता है। हो भी न कैसे? एक गीता का गान ही अपने आप में इतना सक्षम है कि इसे पाने के बाद और कुछ पाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। क्योंकि यह स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुख-कमल से ही निःसृत हुई है। कहा भी गया है-

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिसृतः॥

गीता का जितना स्वाध्याय किया जाय, उतने ही जीवन को महान बनाने के नए-नए सूत्र हाथ लगते हैं। मनुष्य को संपूर्ण बनाने के लिए जो भी तत्त्व आवश्यक है, वह सब गीता में है। भगवान् श्रीकृष्ण ने उस महान ज्ञान-तत्त्व रूपी दुग्ध को उपनिष रूपी गायों से दोहन करके निकाला है, जिसे गीतामृत कहा गया है-

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥

यहाँ एक विशेष बात है-‘गोपालनन्दन’ जिसका अर्थ है गो अर्थात् ग्वालबालों को पालने के साथ-साथ आनन्द प्रदान करने वाले एवं गो अर्थात् गौओं को सस्नेह पालने वाले, यानी कि राजा नन्द का पुत्र। दूसरे अर्थ में राजा नन्द को सदा आनन्दित रखने वाले एवं समस्त ग्वालबालों का पालन-संरक्षण करने तथा उन्हें सदा आनन्दित रखने वाले हैं। इसके अतिरिक्त एक और अर्थ है, जो विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वह यह कि पालन करने वाले तो संसार में बहुत हैं, पर पशुओं को भी यहाँ पशु से तात्पर्य सद्ज्ञान से रहित मनुष्यों को भी लिया जा सकता है, जो अज्ञानता के कारण पशु जैसे ही होते हैं और अधिकतर हानिकर कार्य ही करते रहते हैं, ऐसे अज्ञानी मनुष्यों को भी अपनी संतान के समान पालना विशेष महत्त्व रखता है, जो भगवान् श्रीकृष्ण में एक अनन्य विशेषता है। इसी से उनकी भगवत्ता झलकती है। ऐसे महापुरुष, सद्पुरुष, अवतारी सत्ता जब कुछ बोलते हैं, तो निश्चय ही वह गीता ही हो सकती है। यहाँ गीता और श्रीकृष्ण, ज्ञान और उसके प्रदाता भिन्न-भिन्न नहीं हैं, बल्कि एक हैं।

गीता सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान कर सभी दुःखों को हरने वाली कामधेनु जैसी है। संत विनोबा भावे कहते थे- हर कष्ट, हर दुःख के लिए गीताई की शरण जाओ। महात्मा गाँधी कहते थे- जब मुझे समस्याएं सताती हैं, तो मैं गीता माता की गोद में चला जाता हूँ। जहाँ मुझे सारी समस्याओं का समाधान मिल जाते हैं।

इस प्रकार गीता हिन्दू ही नहीं, अन्यान्य संप्रदाय के लिए भी माता के समान है, जो अपनी शरण में आए हुए हर पुत्र की समस्याओं का समाधान करती है। माता सर्वापरि होती है-गुरु से भी ऊपर। इसी कारण शपथ भी ली जाती है तो गीता के ऊपर हाथ रखकर। अदालत के लिए सद्ग्रन्थों की कमी नहीं है, पर गीता तो गीता है, वह माता है, सबकी माता। वह न कोई शास्त्र है, न ग्रन्थ है। वह तो सबको छाया देने वाली, ज्ञान का प्रकाश देने वाली माता है।