गणपति को इसलिए परम प्रिय है दूर्वांकुर, जानें क्‍या है इसकी कथा?

दूर्वांकुर के बारे में गणेश पुराण में मिलती है यह कथा

कहते हैं कि ईश्‍वर तो भक्‍त की मामूली सी भक्ति से भी प्रसन्‍न हो जाते हैं। जरूरी नहीं कि आप प्रभु को प्रसन्‍न करने के लिए 56 भोग लगाएं या फिर नाना प्रकार की वस्‍तुएं भेंट करें। सच्‍चे मन से अर्पित किया गया जल भी आपको प्रभु की कृपा का पात्र बना सकता है। कुछ ऐसी ही कथा मिलती है दूर्वांकुर के बारे में। गणेश पुराण के अनुसार एक बार एक चांडाली और एक गधा गणेश मंदिर में जाते हैं और वह कुछ ऐसा करते हैं कि उनके हाथों से दूर्वा श्री गणेश जी के ऊपर गिर जाती है। गणपति जी इससे काफी प्रसन्‍न होते हैं और दोनों को ही अपने लोक में स्‍थान देते हैं।

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गणेश पुराण में दुर्वांकुर की एक और कथा

श्री विघ्‍नहर्ता को प्रिय दुर्वांकुर के बारे में गणेश पुराण में एक अन्य कथा मिलती है। इसके मुताबिक एक बार गणेश जी महाराज ने अपनी बाल्‍यकाल में असुर अनलासुर को अपने कंठ में धारण कर लिया था। इसके बाद उनके गले में परेशानी होने लगी तो उस ताप को शांत करने के लिए मुनियों ने गणेश जी को 21 दूर्वांकुर अर्पित की। इससे श्री गणपति महाराज का ताप शांत हो गया। इसके बाद यह माना जाता है कि दूर्वांकुर चढ़ाने से गणेश जी प्रसन्‍न होते हैं। यही वजह है कि भक्‍त विघ्‍नहर्ता को दूर्वांकुर चढ़ाकर उन्‍हें प्रसन्‍न करने का प्रयास करते हैं।

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जब श्री गणेश जी की क्षुधा दूर्वांकुर से हुई शांत

इसके अलावा गणेश पुराण में ही एक और क‍था मिलती है कि एक बार श्री नारद मुनि गणपति जी से मिथिला नरेश जनक जी महाराज के अहंकार की कथा कहते हैं। वह बताते हैं कि जनक जी स्‍वयं को तीन लोकों का स्‍वामी और रक्षक समझते हैं। यही नहीं वह स्‍वयं का गुणगान भी इसी रूप में करते हैं। तब गणपति जी महाराज मिथिला नरेश का अहंकार चूर करने पहुंचे। उन्‍होंने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और जनक जी महाराज के द्वार पर पहुंचकर कहा कि वह उनकी महिमा सुनकर आए हैं और बहुत दिनों से भूखें हैं। इसके बाद श्री जनक जी महाराज ने अपने सेवकों को ब्राह्मण देवता को भरपेट भोजन कराने का आदेश दिया। गणेश जी ने पूरे नगर का संपूर्ण अन्‍न खा लिया लेकिन उनकी क्षुधा शांत नहीं हुई। तब महाराज जनक जी का अहंकार चूर-चूर हो जाता है। इसके बाद ब्राह्मण वेशधारी श्री गणेश जी मिथिला के ही एक गरीब ब्राह्मण त्रिशिरस के द्वार पर पहुंचते हैं। जहां वह कहते हैं कि वह अत्‍यंत भूखें हैं उन्‍हें भोजन कराएं ताकि उनकी क्षुधा शांत हो जाए। इसपर ब्राह्मण त्रिशिरस की पत्‍नी विरोचना ने श्री गणेश जी महाराज को दूर्वांकुर अर्पित किया। उसे खाते ही विघ्‍नहर्ता की क्षुधा शांत हो गई और वह तृप्‍त हो गए। इसके बाद अपने रूप में आकर उन्‍होंने दोनों को मुक्ति का आशीर्वाद दिया। यही वजह है कि तब से श्री गणेश जी महाराज को दूर्वांकुर जरूर चढ़ाया जाता है। कहा जाता है कि इससे पार्वती पुत्र प्रसन्‍न होकर भक्‍त पर सदैव ही अपनी कृपा बनाए रखते हैं।

कुबेर के कोष पर भारी एक दूर्वांकुर

गणेश जी को चढ़ाए जाने वाली दूर्वांकुर का महत्‍व इतना है कि उसके आगे कुबेर का कोष भी कोई स्‍थान नहीं रखता। ऐसा वर्णन गणेश पुराण की एक कथा में मिलता है। कथा के अनुसार कौण्डिन्‍य की पत्‍नी आश्रया ने जब श्री गणेश जी को एक दूर्वांकुर चढ़ाया तो उसकी बराबरी कुबेर का संपूर्ण कोष भी नहीं कर पाया। ऐसी अद्भुत महिमा है दूर्वांकुर की। यही वजह है कि विघ्‍नहर्ता को प्रसन्‍न कर उनकी कृपा प्राप्ति के लिए दूर्वांकुर चढ़ाए जाने की सदियों पुरानी परंपरा का आज भी निर्वहन किया जाता है।

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