और इस तरह बापू की दिखाई राह पर चलते हुए किए जनकल्याण के कार्य

राजस्थान के रेगिस्तान में बसे सरदारशहर कस्बे में मोहन का जन्म हुआ था। उसने छुटपन में पिता धनराज को साधु बनते देखा। उस कठिन परिस्थिति में मां ने पांच बच्चों को पाला-पोसा। सबसे छोटे मोहन को भी स्कूल भेजा लेकिन गुरुजी के हाथों एक बच्चे को बेरहमी से पिटते देख वह ऐसा डरा कि फिर कभी स्कूल नहीं गया। परिवार के धार्मिक वातावरण के कारण मोहन के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ, फिर आजादी की लड़ाई ने उसे झकझोर कर रख दिया।

तेरह-चौदह वर्ष का होते-होते वह आंदोलन में कूद पड़ा। भय के माहौल के बावजूद उसने अपने इलाके में प्रजा परिषद की गुप्त रूप से शुरुआत करने का साहस दिखाया। आजादी के बाद मोहन ने खुद से सवाल किया कि अब इसके बाद क्या? जवाब गांधी के विचारों से मिला। उसने अपने कार्यक्षेत्र को सामाजिक सरोकारों से जोड़ दिया।

धीरे-धीरे वह मोहन भाई कहलाने लगे। उन्होंने हरिजन सेवा, कुरीति उन्मूलन और शराबबंदी को अपने अभियान का हिस्सा बनाया। लेकिन वह स्कूल की घटना को कभी नहीं भूले। उन्होंने निश्चय किया कि ऐसा स्कूल खोला जाए जो बच्चों को डराए नहीं। 1949 में उन्होंने सरदारशहर में मोंटेसरी पद्धति आधारित बाल-मंदिर की स्थापना की। यह राजस्थान का पहला बाल-मंदिर बना।

कुछ ही वर्षों में बाल-मंदिर खोलने का अभियान चल पड़ा। इसी समय बालिका विद्यालय के रूप में बालिका शिक्षा की पहल की। हरिजन बच्चों की रोजगारपरक शिक्षा के लिए 1950 में उन्होंने बहुद्देशीय संस्थान ‘बापा सेवा सदन’ की स्थापना की। मोहन भाई जैन ने गांधी विद्या मंदिर की स्थापना में भी अहम भूमिका अदा की जो आज विश्वविद्यालय का रूप ले चुका है। सचमुच मोहनदास के विचारों ने ऐसे कई मोहनभाई पैदा किए जो यश और श्रेय की चिंता किए बगैर निर्बलों का बल बनने में अपनी सार्थकता समझते रहे।

संकलन : रुचि आनंद