इसलिए छत्रपाणि ने महात्मा बुद्ध के सामने नहीं किया राजा का सत्कार

संकलन: भारती देवी
श्रावस्ती में छत्रपाणि नाम का एक उपासक रहता था। वह त्रिपिटक का ज्ञाता था। एक दिन वह बुद्ध का प्रवचन सुनने पहुंचा। वह शास्ता के सामने गया, सादर प्रणाम किया और एक तरफ बैठ गया। थोड़ी देर बाद राजा प्रसेनजित भी तथागत का प्रवचन सुनने पहुंचे। छत्रपाणि वहीं था। उसके मन में सवाल उठा कि इस समय बौद्ध विहार में राजा के आगमन पर उठकर उसका सत्कार करना उचित है या नहीं?

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मन से ही जवाब मिला कि इस समय संसार में जो सर्वश्रेष्ठ हैं, मैं उनके सम्मुख बैठा हूं। राजा का स्तर तो उनसे नीचे होता है। इसलिए बुद्ध के सामने अगर राजा का सत्कार करने के लिए खड़ा होता हूं तो यह उनका अपमान होगा। इसी सोच के प्रभाव में छत्रपाणि अपने आसन से नहीं उठा। छत्रपाणि से उचित सम्मान न पाकर राजा प्रसेनजित मन ही मन क्रोधित हो गया। बुद्ध ने राजा का मन पढ़ लिया और उसका गुस्सा शांत करने के लिए वह छत्रपाणि के गुणों का बखान करने लगे। इससे राजा का क्रोध कम हो गया।

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बाद में एक दिन राजा ने छत्रपाणि को अपने महल के सामने से छाता ताने हुए जाते देखा। उसने छत्रपाणि को बुला लिया। छत्रपाणि राजा के पास पहुंचा तो उसने अपना छाता और जूता एक तरफ रख दिया और उन्हें प्रणाम कर खड़ा हो गया। राजा ने व्यंग्य में पूछा, ‘जूता और छाता अलग क्यों रख दिया?’ ‘राजा के सम्मान में महाराज।’ ‘तो तुम्हें आज समझ में आ रहा है कि मैं राजा हूं?’ ‘नहीं राजन! मुझे पता है कि आप राजा हैं।’ ‘ऐसी बात थी तो उस दिन शास्ता के सामने तुम बैठे क्यों रहे?’ ‘राजन! उस दिन मैं सर्वश्रेष्ठ के आगे बैठा हुआ था। अगर आपके सम्मान में उठ खड़ा होता तो संसार के राजा का अपमान होता।’ यह सुनकर राजा बोले, ‘बुद्ध ने तुम्हारे बारे में ठीक ही कहा था। वाकई, वही सबसे बड़े हैं।’