जब दमयंती निद्रा से जागी, तो उसने देखा कि राजा नल वहाँ नहीं हैं। राजा को वहाँ न पाकर वह उस घोर वन में हाहाकार करते हुए रोने लगी। महान दु:ख और शोक से संतप्त होकर वह नल के दर्शन की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगी। इसी प्रकार कई दिन बीत गए और भटकते हुए वह चेदी देश में पहुँची। दमयंती वहाँ उन्मत्त-सी रहने लगी। वहाँ के छोटे-छोटे शिशु उसे इस अवस्था में देख कौतुकवश घेरे रहते थे।
एक बार कई लोगों में घिरी हुई दमयंती को चेदी देश की राजमाता ने देखा। उस समय दमयंती चन्द्रमा की रेखा के समान भूमि पर पड़ी हुई थी। उसका मुखमंडल प्रकाशित था। राजमाता ने उसे अपने भवन में बुलाया और पूछा: तुम कौन हो?
इस पर दमयंती ने लज्जित होते हुए कहा: मैं विवाहित स्त्री हूँ। मैं न किसी के चरण धोती हूँ और न किसी का उच्छिष्ट भोजन करती हूँ। यहाँ रहते हुए कोई मुझे प्राप्त करेगा तो वह आपके द्वारा दंडनीय होगा। देवी, इसी प्रतिज्ञा के साथ मैं यहाँ रह सकती हूँ ।
राजमाता ने कहा: ठीक है, ऐसा ही होगा।
तब दमयंती ने वहाँ रहना स्वीकार किया। इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत हुआ। फिर एक ब्राह्मण दमयंती को उसके माता-पिता के घर ले आया किंतु माता-पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने पर भी पति के बिना वह बहुत दुःखी रहती थी।
एक बार दमयंती ने एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उनसे पूछा: हे ब्राह्मण देवता ! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बताएं जिससे मेरे पति मुझे प्राप्त हो जाएं।
इस पर उस ब्राह्मण ने कहा: तुम मनोवांछित सिद्धि प्रदान करने वाले आशा दशमी व्रत को करो, तुम्हारे सारे दु:ख दूर होंगे तथा तुम्हें अपना खोया पति वापस मिल जाएगा।
तब दमयंती ने आशा दशमी व्रत का अनुष्ठान किया और इस व्रत के प्रभाव से दमयंती ने अपने पति को पुन: प्राप्त किया और हँसी-खुशी से अपना जीवन व्यतीत किया और मोक्ष धाम को प्राप्त हुई।