आजादी से पहले जेल में कैदियों से निकलवाया जाता था तेल

सन 1910 में लद्दाराम जी प्रयाग में उर्दू स्वराज्य के संपादक थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ तीन लेख लिखे। अंग्रेजों ने तीनों पर अलग-अलग राजद्रोह लगाया और 10-10 साल की तीन सजाएं देकर उन्हें अंडमान की जेल में भेज दिया। लद्दाराम जी से पहले उर्दू स्वराज्य के तीन और संपादकों को अंडमान की सजा हो चुकी थी, सारे वहां पहले से मौजूद थे। लद्दाराम जी 1911 में अंडमान की सेलुलर जेल पहुंचे।

जेलर ने उन्हें बुलाया और ढेर सारी हिदायतें दीं। जब जेलर की बात खत्म हो गई तो लद्दाराम जी ने कहा, ‘आपकी कोई और आयत बाकी हो तो मुझे बता दीजिए।’ जेलर को आयत शब्द बहुत बुरा लगा और वह बोला, ‘वेल लद्दाराम, मैं तुमको देख लेगा।’ अब उसने लद्दाराम की ड्यूटी कोल्हू में लगा दी, जहां उन्हें हर रोज तीस पौंड तेल निकालना पड़ता। लद्दाराम ने इससे इनकार कर दिया और बोले, ‘यह भैंसे का काम है, मेरा नहीं। जिसने यह कानून बनाया, वह खुद करके दिखा दे तो मैं दूना तेल निकालूंगा।’ लद्दाराम जी को हथकड़ी लगाकर दीवार के साथ बांध दिया गया, मगर वह नहीं टूटे। उलटे, जेलर को धन्यवाद कहा।

उधर जेलर जल-भुन रहा था, इधर लद्दाराम जी ने जेल में आंदोलन चला दिया कि वे सब राजनीतिक कैदी हैं, इसलिए सबको पढ़ने के लिए किताबें मिलनी चाहिए। मांग पूरी नहीं हुई तो लद्दाराम जी ने अनशन शुरू कर दिया। जेल के डॉक्टर जबरदस्ती दूध पिलाने आए तो उन्होंने उनको काट खाने की धमकी दी। उनका यह अनशन पैंतीस दिन तक चला। आखिर जेलर ने हार मान ली और सबको किताबें पढ़ने की अनुमति मिली। इसके बाद भी लद्दाराम जी ने जेल के अंदर की ज्यादतियों के खिलाफ अभियान बंद नहीं किया। परेशान होकर जेलर को ही उन्हें भारत की जेल में शिफ्ट करना पड़ा। उनके जुझारूपन को देखते हुए अंडमान में उनके साथी उन्हें फील्ड मार्शल लद्दाराम बुलाते थे।

संकलन : राजकिरण