संकलन : अंजु अग्निहोत्री
संगीत सम्राट तानसेन अकबर के दरबार दीवान-ए-खास में तानपूरा छेड़ते, आलाप भरते तो बादशाह अकबर वाह-वाह करते रह जाते। यह देख उनके चापलूस दरबारी भी वाह-वाह करने लगे। उनकी चापलूसी भरी वाह-वाही से परेशान होकर अकबर ने बीरबल से इस मर्ज का स्थायी इलाज करने को कहा। सम्राट अकबर के आदेश पर बीरबल ने दरबार में संगीत का जलसा आयोजित किया। बादशाह अकबर के सभी दरबारी दरबार के नियमानुसार सज-धजकर दीवान-ए-खास में पहुंचे।
सभी बादशाह अकबर के दरबार में आने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। उनमें से कोई भी तानसेन के गायन का एक भी शब्द या राग तो नहीं समझता था, लेकिन बादशाह अकबर के सामने वाह-वाही करके बादशाह का दुलारा बनने को बेताब था। अकबर के आते ही दीवान-ए-खास मुगल सेना के सिपाहियों से भर गया। हर दरबारी के पीछे एक सिपाही नंगी तलवार लिए खड़ा था। अब तो किसी को जैसे काटो तो खून नहीं। कोई न तो कुछ कह पा रहा था और न ही किसी से कुछ पूछ पा रहा था। तभी बीरबल ने खड़े होकर बादशाह की घोषणा पढ़ कर सुनाई। घोषणा क्या थी, मौत का पैगाम था।
हर दरबारी के पीछे खड़े सिपाही को शाही हुक्म दिया गया था कि तानसेन के गाने के बीच में जो भी वाह-वाह की सदा लगाए, उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया जाए। तानसेन ने तानपूरा उठाया, तार छेड़े, अलाप भरा, परंतु क्या मजाल कि कोई चूं तक कर दे। तानसेन का गाना गजब ढा रहा था, किंतु दरबारी चुप ही रहे। तभी एक व्यक्ति मुंह से अचानक वाह निकल ही पड़ा। सिपाही ने हाथ ऊपर उठाया, परंतु बादशाह ने उसे इशारे से रोक दिया और उस सच्चे प्रशंसक को, जिसे मौत का भी डर नहीं था, पुरस्कार देकर जी हजूरी करने वाले दरबारियों को शर्मिंदा कर दिया।